منذ أيام الصبا كان رفيقي، أحس بشيء ينقصني إن تأخر عن رفقتي، أو غبت عنه عنوة!
رقيق لكنه عنيد.. ولا يسير من تلقاء نفسه.
إذا دفعته يسير مذعناً.
يحث الخطى حينا ويبطئها أحياناً..
يتركني ليتوقف قليلاً ثم ينطلق كجواد أصيل يتقدم حلبة سباق.
يتابع مسيرة.. يرفع هامته عالياً.
ويلتفت إلى كبرياء!
أتساءل:
- هل يخيل إيه أنه يقود يدي!
- ....
أتأمله.. أكد أسمع صوته.. أنهره لكنه لا يلتفت ولا يجزم من لسع يدي!
أشفق عليه:
ليته يحمل مرآته.. ليته يملك سمحاته!